नौजवान शहरों में गए कमाने : घरौंदों में अपनों का इंतजार कर रहीं बेबस-बूढ़ी आंखें


गांव के युवा परिवारों सहित अन्य शहरों में पलायन कर गए और गांव में सिर्फ बूढ़े-मां बाप को छोड़ गए। साल में एक-दो बार बच्चे आते हैं या फिर खर्च भेज देते हैं।


महोबा  । उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में कुलपहाड़ मार्ग से बेलाताल पहुंचते ही त्रासदी का अहसास होने लगता है। आगे अजनर गांव हैं, जहां हरियाली के नाम पर ऊसर सी नजर आने वाली भूमि पड़ी है। फसल के नाम पर खेतों में सिर्फ घास नजर आती है। गांव के अंदर दाखिल होते ही सन्नाटे का अहसास होने लगता है। न बच्चों की उछलकूद दिखाई देती है और न ही चौबारों में बैठे युवा आपस में चर्चा करते दिखते हैं। दिखें भी कैसे, अब गांव में कोई रहा ही कहां है। कुदरत ने ऐसा अन्याय किया कि खेती के लायक ही नहीं छोड़ा। गांव के युवा परिवारों सहित अन्य शहरों में पलायन कर गए और गांव में सिर्फ बूढ़े-मां बाप को छोड़ गए। साल में एक-दो बार बच्चे आते हैं या फिर खर्च भेज देते हैं।


गांधी जी कहते थे कि असली भारत देखना हैं तो गांवों में जाइए। हालांकि महोबा के लगभग सभी गांवों के हालात इससे काफी विपरीत हैं। अजनर गांव पहुंचते ही ये आपको साफ नजर आने लगेगा। गांव में घर के बाहर बैठे सिर्फ वृद्ध दिखाई देते हैं। इन्हीं में एक नबरा हैं। पूछने पर उन्होंने बताया कि बेटा अपनी पत्नी के साथ पैसा कमाने बाहर गया है। लड़का त्योहार पर भी नहीं आता बस पैसे भेज देता है। इसी से खर्चा चलाते हैं। न तो पेंशन मिलती


 


है और न ही राशन कार्ड बना है। गांव में उनके साथ सिर्फ पति रामप्रसाद रहते हैं। वहीं, बालादीन की मां पार्वती भी बेबस नजर आती हैं। कहती हैं कि पहले पेंशन मिलती रही, लेकिन अब बंद कर दी गई। खेतों में बोआई नहीं हो पाई। बच्चे बाहर चले गए। इसी गांव के जाहर पुत्र रजुवा के घर पर कई माह से ताला लटका है। आस पड़ोस के लोग बताते हैं कि वह मजदूरी करने परिवार के साथ दिल्ली चला गया।


कृषि ही है आय का मुख्य स्त्रोत


महोबा जिले में लोगों की आय का प्रमुख स्नोत कृषि ही है। यहां न तो कोई उद्योग है और न ही प्राइवेट कंपनियां हैं जिनमें काम कर लोग जीविकोपार्जन कर सकें। ऊपर से कुदरत भी रूठ चुका है। गांव वीरान हैं और सूखे ने जनजीवन को जकड़ रखा है। किसान पूरी तरह बर्बाद हो चुके हैं। अन्य आपदाओं से बड़े काश्तकार भी दो वक्त की रोटी को मोहताज हैं। सरकार की कर्ज माफी योजना सहित मनरेगा का मकसद भी इस इलाके में फेल हो चुका है।


 


8 लाख में 18 हजार को काम


जिले में आठ लाख आबादी है, लेकिन एक साल में औसतन कुल 18 हजार लोगों को ही काम मिल पाता है, जो अपर्याप्त है। ग्राम पंचायत स्तर की बात करें तो साल में सिर्फ 60 से 70 लोगों को ही 100 दिन का रोजगार मिलता है। बाकी बचे लोग महानगरों की तरफ पलायन करते हैं। इसी तरह सेवायोजन कार्यालय में तकरीबन 11 हजार लोगों का पंजीकरण है, लेकिन इनमें से औसतन 200 से 250 लोगों को ही रोजगार मिल पाता है।


 


लक्ष्य के सापेक्ष नहीं हो सकी बोआई


कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इस साल 49,213 हेक्टेयर कृषि भूमि पर गेहूं की बोआई का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। लेकिन 13,090 हेक्टेयर में ही बोआई हो सकी है शेष जमीन 36,123 हेक्टेयर परती पड़ी है। इसका सबसे बड़ा कारण बारिश का मुंह फेर लेना रहा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस बार सिर्फ 400 एमएम बारिश ही हुई, जबकि पिछले वर्षों में यह आंकड़ा औसतन 900 एमएम रहा है।


 


जिले के भीषण हालात


सिर्फ अजनर ही नहीं बल्कि पूरे जिले के तकरीबन 400 गांवों में भीषण हालात हैं। जैतपुर ब्लॉक का अकौनी गांव भी इनमें से एक है। यहां के शंकर कुशवाहा और रामसहाय के पास क्रमश: 8-10 बीघा जमीन है। बोआई न होने से रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया। हालात से हारकर शंकर दिल्ली और रामसहायक फरीदाबाद पलायन कर गए हैं। इसी गांव के पुरुषोत्तम, दीपक, राजू कुशवाहा, मनोज भी बाहर जा चुके हैं। कमोवेश यही स्थिति पचपहरा, पनवाड़ी विकासखंड के सरगपुरा सहित अन्य गांवों की है।


 


मनरेगा के तहत लोगों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता है। सिंचाई के लिए नहरों का संचालन भी समय-समय पर होता है। बारिश के कारण खेती पर फर्क पड़ा है। इस वजह से लोग रोजगार के लिए बाहर जा रहे हैं।